पिछले 10 सालों में 1.73 लाख हेक्टेयर से ज़्यादा वन भूमि Non forestry Projects को दी गई: सरकार

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नई दिल्ली: भारत में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन पर एक महत्वपूर्ण जानकारी सामने आई है। पर्यावरण मंत्रालय ने सोमवार को संसद को बताया कि वर्ष 2014 से 2024 तक, पूरे भारत में 1.73 लाख हेक्टेयर से भी ज़्यादा वन भूमि (forest land) को गैर-वानिकी उद्देश्यों (non-forestry purposes) के लिए उपयोग करने की मंजूरी दी गई है। इनमें खनन (mining) और जलविद्युत परियोजनाएं (hydroelectric projects) जैसी बड़ी परियोजनाएं शामिल हैं।

वन संरक्षण अधिनियम के तहत स्वीकृति

लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में पर्यावरण राज्य मंत्री कीर्ति वर्धन सिंह (Kirti Vardhan Singh) ने यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 (वर्तमान का वन संरक्षण एवं संवर्धन अधिनियम, 1980) के तहत 1 अप्रैल, 2014 से 31 मार्च, 2024 के बीच विभिन्न गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए कुल 1,73,984.3 हेक्टेयर वन भूमि को हस्तांतरित करने को मंजूरी दी गई थी। यह आंकड़ा दर्शाता है कि विकास परियोजनाओं के लिए किस हद तक वन भूमि का उपयोग किया जा रहा है।

खनन गतिविधियां: वन भूमि के नुकसान का सबसे बड़ा कारण

मंत्री के अनुसार, इस अवधि के दौरान वन भूमि का सबसे अधिक उपयोग खनन और उत्खनन गतिविधियों (mining and quarrying activities) के लिए किया गया। इन गतिविधियों के लिए 40,096.17 हेक्टेयर वन भूमि का उपयोग करने की अनुमति दी गई थी।

सिंह ने आगे बताया कि इसमें खनन गतिविधियों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल थी जो खनिज समृद्ध क्षेत्रों (mineral-rich regions), विशेष रूप से मध्य और पूर्वी भारत में, वन भूमि की कटाई के सबसे बड़े कारणों में से एक बनी हुई है। इन क्षेत्रों में कोयला, लौह अयस्क और अन्य खनिजों के विशाल भंडार हैं, जिनके निष्कर्षण (extraction) के लिए बड़े पैमाने पर वन क्षेत्रों को साफ करने की आवश्यकता होती है।

विकास बनाम पर्यावरण: एक सतत बहस

यह आंकड़ा भारत में विकास परियोजनाओं और पर्यावरण संरक्षण के बीच एक सतत बहस को फिर से उजागर करता है। जहां एक ओर देश के विकास और बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए खनन, बुनियादी ढांचा (infrastructure) और ऊर्जा परियोजनाओं की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर वनों का नुकसान जैव विविधता (biodiversity) के लिए गंभीर खतरा पैदा करता है, जलवायु परिवर्तन (climate change) में योगदान देता है और स्थानीय समुदायों के जीवन को प्रभावित करता है जो वनों पर निर्भर हैं।

सरकार का कहना है कि वन (संरक्षण) अधिनियम के तहत किसी भी वन भूमि के गैर-वानिकी उपयोग के लिए मंजूरी देने से पहले सख्त दिशानिर्देशों और क्षतिपूर्ति वनीकरण (compensatory afforestation) के प्रावधानों का पालन किया जाता है। हालांकि, पर्यावरण कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों का तर्क है कि क्षतिपूर्ति वनीकरण अक्सर काटे गए वनों के पारिस्थितिक मूल्य (ecological value) की भरपाई नहीं कर पाता, खासकर पुराने और घने जंगलों के मामले में।

आगे का रास्ता: संतुलन और टिकाऊ विकास

भारत जैसे तेजी से विकासशील देश के लिए यह एक जटिल चुनौती है। टिकाऊ विकास (sustainable development) के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, सरकारों और उद्योगों को ऐसे समाधान खोजने होंगे जो आर्थिक विकास को बढ़ावा दें और साथ ही पर्यावरणीय अखंडता (environmental integrity) को भी बनाए रखें। इसमें शामिल हो सकता है:

* वैकल्पिक प्रौद्योगिकी (Alternative Technologies): खनन और ऊर्जा उत्पादन के लिए अधिक पर्यावरण-अनुकूल और कम विध्वंसक प्रौद्योगिकियों का उपयोग।
* पुनर्वनरोपण और पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली (Reforestation and Ecosystem Restoration): काटे गए वनों की बहाली के लिए अधिक प्रभावी और त्वरित कार्यक्रम।
* समुदाय की भागीदारी (Community Participation): वन-निर्भर समुदायों को विकास परियोजनाओं की योजना और कार्यान्वयन में शामिल करना ताकि उनके अधिकारों और आजीविका की रक्षा हो सके।
* कठोर नियामक ढांचा (Strict Regulatory Framework): वन संरक्षण कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करना और उल्लंघनकर्ताओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई करना।

यह आंकड़ा एक महत्वपूर्ण अनुस्मारक है कि भारत को अपने विकास पथ पर आगे बढ़ते हुए अपने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है।

आपकी राय में, भारत में विकास परियोजनाओं और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन कैसे साधा जा सकता है?

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